शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

अब तो लौटकर आ जाओ



तुम बिन ऐसा लगता जीवन,
जैसे जल बिन हो, मछली का तड़पन !
तुम ना हो तो, ऋतु शरद की नही सुहाती,
खुशिया अब तो, देहरी से ही वापस लौट आती !

सूना -सूना लगता है अब जग सारा,
तुम बिन यह घर लगता, अब कारा !
झूठी -झूठी लगती है, अब प्यार की बातें,
तुम बिन नही कट पाती, यह सुहानी राते !

जीवन ज्योति जलाने की सोची थी,

लेकिन अधरों की हँसी चुरा ली !
हे ईश्वर तूने यह कैसा मीत दिया ?
अब तो लौट कर आ जाओ,
लो आज का दिन भी बीत गया !

प्यार की यह कैसी परिभाषा,
जीवन माँगी वहा मिली निराशा !
तुम गयी तो, जैसे उजड़ गया मेरा जनवासा,
एक सपन भी, पास ना आकर दी है दिलासा !

माँगी थी जन्नत तुमसे, पर धरती भी मैं शेष ना पाया,
मेरा हंसते हंसते जीना,

क्यो पल भर भी तुझको रास ना आया ?
मेरे नयनो में अश्क भिगोकर, क्या ख़ाक है तुमने पाया ?
मेरे जीवन की कश्ती डुबाकर, कह दो मेरा जी भर आया !

धड -धड करती गीत पसंद ना था ,
फिर भी तुमने तेज धड़कती का, यह कैसा संगीत दिया ?
अब तो लौट कर आ जाओ,
लो आज का दिन भी बीत गया !

उस नीली छतरी वाले मालिक ने,
कैसा गजब है मुझ पर ढाया !
क्षण भर भी जुल्फ घनेरी छाव में ,
मेरा सुस्ताना उसको एक ना भाया !

ना पीली हुई थी मेरी काया,
ना ही तूने ब्याह रचाया !
हे ईश्वर तूने,

मुझको यह कैसा विधुर बनाया ?

पूजा में हुई थी भूल कहा ?
या किसने मुझसे धोखा पाया ?
प्रीत छीनकर बना दिया वियोगी ,
मालिक, किस जुल्म की यह तूने सजा सुनाया ?

सचमुच डर सा लगता ,
जब से उठी तुम्हारी साया !
मुझे अभागन सी लगती,
अब मेरी ही छाया !
मिलन ना हुई थी, दे गयी विरह !
है, यह तेरी कैसी माया !

माया के बंधन में पड़कर ,

क्यू तूने मेरा जीवन रीत किया ?
अब तो लौट कर आ जाओ, लो आज का दिन भी बीत गया !



राकेश पाण्डेय
हिर्री माईन्स , भिलाई इस्पात सयंत्र
बिलासपुर , छत्तीसगढ़







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