शनिवार, 15 नवंबर 2008

मानवता का चीरहरण

सड़क पर घायल पड़े एक आदमी का रिसता हुआ लहू ,
चीख -चीखकर किसी की मदद को पुकार रहा था !
जिंदगी से संघर्ष करती श्वास उसकी ,
ख़त्म होती मानवता को जैसे ललकार रहा था !

लहू से लहू का टूटता हुआ रिश्ता ,
विहंग उस काग के आगे शरमा रहा था !
पशुओ से बदतर होता आदमी का जमीर,
मेरा तो नही यह सोच ख़ुद को भरमा रहा था !
माँ के लहू से बना दूध, शायद अब रगों में नही दौड़ता,
इसीलिये डिब्बे का दूध ,
किसी आदमी को ना पा गरमा रहा था !
भागती दौड़ती सभ्यता के बीच बस अब तो ,
मानवता स्वयं के अस्तित्व को आजमा रहा था !

ना किसी को किसी के घर के ,
बुझते हुए दिए की लौ की फिक्र थी !
ना किसी को किसी सुहागन के ,
उजड़ते हुए सिंदूर का भान था !
दर्प से चूर हर कोई गुजर रहा था बगल से ,
ना जाने आदमी का वो कैसा अभिमान था !
जिंदा से मुर्दा बन जाने के बीच का ,
एक छोटा सा फासला तरस रहा था !
जैसे बरसो से भूखा हो ,
वह किसी मानवीय सम्मान का !

कायरो की भीड़ में,
चीरहरण मानवता का जैसे हो रहा था !
फिर से एक छोटी सी महाभारत की कथा में ,
सब मूक दर्शको को इतिहास अपने साथ ढो रहा था !
निष्ठुर समाज के बीच, मानवता रूपी द्रौपती का हरता वसन ,
द्वापर युग के उस कथा की तरह पुनरावृत्त हो रहा था !
विवश होते मानवो और आदमी की लाचारी के बीच ,
आज फिर समाज कही ना कही अपनी सवेदना खो रहा था !

समय रूपी दुस्सासन के आगे ,
सभ्य मानवो का समूह नतमस्तक होकर खडा था !
तार तार होते मानवता के चीरहरण के दृश्य में ,
आदमी का साहस पांडवो के गांडीव की तरह पडा था !
विस्तृत सियारों का जनसमूह,
विशाल वक्ष वाले आदमी के इंतजार में खडा था !
पर कोई एकभी नही निकालकर आया उस भीड़ में से ,
लगता है ,
ईश्वर ने जैसे आदमी का ह्रदय मानो पत्थरो में जडा था !

हर कोई कृष्ण के इंतजार में राह ताकता रहा ,
खून से लथपथ आदमी का जिस्म ,
किसी की आस में अंत तक सिसकता रहा !
धू धू कर जलती सभ्यता के बीच
कृष्ण अंत तक नही आया !
और इस तरह आत्मा ने ,
जिस्म से सम्बन्ध तोड़ने में ही, स्वयं को सहज पाया !

क्षण भर में विभक्त सास ने ,
किसी के घर में भूचाल सा ला दिया !
किसी मासूम की मुस्कान छीन गयी ,
और माँ को भी खडा बेहाल दहलीज पर ला किया !
किसी की आस टूटी ,
तो किसी के कुछ कर गुजरने की प्यास टूटी !
बस टूटते हुए साँस के साथ ,
एक पूरे घर की छाव देती ,
छतरी सी वो छत की बांस टूटी !

आज फिर किसी की मौत ने ,
अस्तित्व खोती मानवता को ललकारा है !
आदमी की स्वकेंद्रित होती निष्ठा के बीच ,
सभ्यता को घोर निद्रा से फिर पुकारा है !
यदि आदमी अब भी नही जागेगा ,
तो महाभारत की द्रौपती की कथा ,
हर सड़क पर हमारी जमीर को ललकारेगा !
यदि यही कथा फिर से दोहराई गयी ,
तो इस देश की हर माँ का खून ,
हमें जन्म देने के लिए बार - बार धिक्कारेगा !



1 टिप्पणी:

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

आदमी की स्वकेंद्रित होती निष्ठा के बीच ,
सभ्यता को घोर निद्रा से फिर पुकारा है

लेकिन इसका दोष किसे दें
हम सब ही तो अपराधी हैं
निष्ठा की परिभाषा भूले
और सभ्यता तो बाँदी है
आईने की छलनाओं मे
हमने खुद को उलझाया है
और सिर्फ़ कहने की खतिर
मिल कत जन मन गण गाया है